विश्व को आइना दिखाने वाले जगतगुरु विवेकानंद युवाओ के लिए आदर्श
राष्ट्रपरक चिंतन व देश के प्रति समपर्ण ने स्वामी विवेकानंद को र्शद्धा व आदर का पात्र बनाया। माता के माध्यम से मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार पड़े और धार्मिक वातावरण ने मन में ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा जगाई, इसीलिए 25 वर्ष की आयु में संन्यासी बन गुरु की खोज में निकल पड़े। एक भी संत उन्हें स्वयं ईश्वर को देखने का यकीन नहीं दिला पाया। अंत में उनकी मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई। कहते हैं, उन्होंने ईश्वर के दर्शन कराए फिर तो विवेकानंद आजीवन उनके शिष्य बन कर रहे। 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में जन्मे नरेंद्र विवेकानंद बनने से पहले 16 वर्ष की आयु में नास्तिकता की चपेट में आ गए थे परंतु गुरु रामकृष्ण परमहंस के दिव्य स्पर्श ने नरेंद्र को बदला।रामकृष्ण परमहंस ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में उनका मार्गदर्शन किया। नरेंद्र पक्के अतिथि-सेवी थे, वे स्वयं भूखे रह अतिथि को भोजन कराना, खुद रात भर जागकर भी अतिथि को सुलाना उन्हें परमानंद देता था। विवेकानंद राष्ट्रपरक चिंतन व देश के प्रति समपर्ण ने स्वामी विवेकानंद को र्शद्धा व आदर का पात्र बनाया। माता के माध्यम से मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार पड़े और धार्मिक वातावरण ने मन में ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा जगाई, इसीलिए 25 वर्ष की आयु में संन्यासी बन गुरु की खोज में निकल पड़े। एक भी संत उन्हें स्वयं ईश्वर को देखने का यकीन नहीं दिला पाया। अंत में उनकी मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई। कहते हैं, उन्होंने ईश्वर के दर्शन कराए फिर तो विवेकानंद आजीवन उनके शिष्य बन कर रहे। 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में जन्मे नरेंद्र विवेकानंद बनने से पहले 16 वर्ष की आयु में नास्तिकता की चपेट में आ गए थे परंतु गुरु रामकृष्ण परमहंस के दिव्य स्पर्श ने नरेंद्र को बदला। रामकृष्ण परमहंस ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में उनका मार्गदर्शन किया। नरेंद्र पक्के अतिथि-सेवी थे, वे स्वयं भूखे रह अतिथि को भोजन कराना, खुद रात भर जागकर भी अतिथि को सुलाना उन्हें परमानंद देता था। विवेकानंद का मत था ‘युवा बदलेंगे तो भारत बदलेगा’।
देश के पुनर्निर्माण के लिए निकले विवेकानंद भूखे रहे, वर्षों घूम घूमकर राजाओं, दलितों, अगड़ों, पिछड़ों सबसे मिले। कन्याकुमारी में समाप्त हुई यात्रा के बाद ज्ञान प्राप्त करने वाले राष्ट्रानुरागी विवेकानंद का मानना था कि वैरागियों और जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस देश में नवजागरण का संचार किया जा सकता है। भारत पुनर्निर्माण के लगाव से ही वे 11 सितंबर, 1893 को शिकागो धर्म संसद में गए। जहां उन्होंने अपने भाषण से भारत और हिंदू धर्म की भव्यता स्थापित कर जबरदस्त प्रभाव छोड़ा। सभी ने स्वीकार किया कि वस्तुत: भारत ही जगतगुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानंद के चमत्कारी भाषण ने विश्व भर में भारत की धाक जमा दी थी।
उनके भाषण के कुछ अंश हैं- ‘अमेरिकी बहनों और भाईओं, आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा ह्रदय अपर हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया के सबसे पौरानिक भिक्षुओ की तरफ से धन्यवाद देता हूँ। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिकता का पथ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नही रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मो को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मैं एक ऐसे देश से हूँ जिसने इस धरती के सभी देशो के सताये गये लोगो को शरण दी है। हमने अपने ह्रदय में उन इजराइलियो के स्मृतियां बचा कर रखी हैं, जिनके मंदिरों को रोमनो ने तोड़—2 कर खंडहर बना दिया, तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण लि। मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिनसे महान पारसी देश के अवशेषों को शरण दी और अभी भी भडावा दे रहा है। जिस तरह से विभिन धाराओ की उत्पति विभिन स्त्रोतों से होती है उसी प्रकार मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-2 मार्ग चुनता है, वो देखने में भले सीधा या टेढ़े-मेढ़े लगे पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।
मानवधर्म के हामी विवेकानंद ने कहा साम्प्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशज, हठधर्मिता लम्बे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजे मैं जकड़े हुए हैं। कितनी बार ही ये धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओ का विनाश हुआ है और कितने देश नस्ठ हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नही होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिता, हर तरह के क्लेश चाहे वो तलवार से हों या कलम से और हर मनुष्य, जो एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं, के बिच की दुर्भावनाओ का विनाश करेगा।
विवेकानंद के कार्य आने वाली शताब्दियो तक पीढियो का मार्गदर्शन करते रहेंगे। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने एक बारकहा था “यदि आप भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानन्द को पढ़िए। उनमे आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नही”। रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना असम्भव है। वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम हुए। भारत की आत्मा को जगाने का अंतिम दिन 4 जुलाई, 1902 को भी ध्यान किया। भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देखने वाले विवेकानंद केवल 39 वर्ष ही जी पाए। उन्होंने भारत में चरित्र व् नैतिकता को पुनर्जीवित किया।
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