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एक राजा था। उसने भगवान को खोजना चाहा। वह किसी आश्रम में गया। उस आश्रम के मुखिया साधु ने कहा, जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे छोड़ दो। भगवान को पाना तो बहुत सरल है। राजा ने यही किया। उसने राज्य छोड़ दिया और अपनी सारी दौलत गरीबों में बांट दी। वह बिल्कुल भिखारी बन गया, लेकिन साधु ने उसे देखते ही कहा, अरे, तुम तो सभी कुछ साथ ले आये हो। राजा की समझ में कुछ भी नहीं आया, पर वह बोला कुछ नहीं। साधु ने आश्रम के सारे कूड़े-करकट को फेंकने का काम उसे सौंपा।

आश्रमवासियों को यह बड़ा कठोर लगा, किन्तु साधु ने कहा, सत्य को पाने के लिए राजा अभी तैयार नहीं है और इसके लिए तैयार होना बहुत ही जरुरी है। कुछ दिन और बीते। आश्रमवासियों ने साधु से कहा कि अब वह राजा को उस कठिन काम से छुट्टी देने के लिए उसकी परीक्षा ले लें। साधु बोला, ठीक है। अगले दिन राजा जब कचरे की टोकरी सिर पर लेकर गांव के बाहर फेंकने जा रहा था तो एक आदमी रास्ते में उससे टकरा गया। राजा बोला, आज से पंद्रह दिन पहले तुम इतने अंधे नहीं थे। साधु को जब इसका पता चला तो उसने कहा, मैंने कहा था न कि अभी समय नहीं आया है। कुछ दिन बाद फिर राजा से कोई राहगीर टकरा गया। इस बार राजा ने आंखें उठाकर उसे सिर्फ देखा, पर कहा कुछ नहीं। फिर भी आंखों ने जो भी कहना था, कह ही दिया।

साधु को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने कहा, सम्पत्ति को छोड़ना कितना आसान है, पर खुद को छोड़ना कितना कठिन है। तीसरी बार फिर यही घटना हुई।

इस बार राजा ने रास्ते में बिखरे कूड़े को बटोरा और आगे बढ़ गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

उस दिन साधु बोला, अब यह तैयार है। जो खुदी को छोड़ देता, वही प्रभु को पाने का अधिकारी होता है। सत्य को पाना है तो स्वयं को छोड़ दो।

'मैं' से बड़ा और कोई असत्य नहीं है।
 
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