जब से आदि-मानव अपने बढ़े हुए बालों और नाखूनों के प्रति चैतन्य हुआ है, तभी से बालों और नाखूनों का काटना जारी है। बाद में सभ्य समाज ने सिर के बाल काटने के लिए पत्थर और लोहे के उपकरणों का आविष्कार किया। सभ्यता की ओर अग्रसर हो रहे आदिम युग के मनुष्यों ने सिर के बाल इसलिए काटने आरम्भ किए होंगे, कि सफाई के अभाव में मनुष्य सिर की कतिपय बीमारियों का शिकार हो जाता रहा होगा। एक अन्य कारण यह भी रहा होगा कि गर्भ के बालों में प्रसूत-कीटाणु रहते हैं । साथ ही उन्हें अपवित्र समझा जाता है। यही कारण हे कि धर्मग्रंथों और गृहस्थ सूत्रों में केश-मुंडन द्वारा सौंदर्य, दीर्घायु, बुद्घि तथा विवेक की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है। प्राचीन समाज में इस संस्कार का विधान यह था कि शिशु की आयु के पहले, तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष में, चैत्र या पौष में, बच्चे का पिता गणेश-पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन खिलाता था। उसके बाद बच्चे को नहलाकर, उसकी माता उसे कोरे कपड़े से ढांपकर और अपनी गोद में लेकर हवन कुंड के पश्चिम दिशा की ओर बैठ जाती थी। बच्चे का पिता एक हाथ से बच्चे को स्पर्श देते हुए दूसरे हाथ से आहुति डालता था। तदनंतर वह कुशा की तीन गुच्छियां बच्चे के बालों में बांधता था और प्रार्थना करता था कि जिस औजार से मुंडन होना है, वह बच्चे पर दयावान रहे और बच्चे को स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त हो। प्राचीन काल मंि इसे ‘चूड़ाकरण‘तथा ‘चौलकर्म’ संस्कार कहा जाता था। मुंडन की वर्तमान रस्म में प्राचीन संस्कार, आंशिक रूप मे जीवित है। मुंडन के उत्सव में कोई ब्राह्मण, वेद-मंत्रों का पाठ करते हुए, बच्चे के सिर पर जल का छींटा देता है तथा घर का नाई, पिता की गोद में बैटे बच्चे के बाल काटकर माता की झोली में डाल देता है। बाद में परिवार की प्रथा के अनुसार, बच्चे को किसी मंदिर, मठ या शक्तिपीठ पर ले जाकर उसके सिर का पूर्ण मुंडन किया जाता है। घर पर काटे गए उसके सिर के बाल, कहीं मंदिर की परिक्रमा में चढ़ाए जाते हैं और कहीं पर गोबर में दबाकर या जल में प्रवाहित किया जाता है।