
यह अपील 10 मई, 1857 से प्रारंभ प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नेतृत्व प्रदान करने वाले अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने जारी की थी। हिंदू और मुसलमान, दोनों को एकजुट होकर संघर्ष हेतु जुटाने के लिए की गई इसी तरह की घोषणाएं विद्रोह केदूसरे केंद्रों से जारी की गई थीं। रूहेलखंड के नवाब खान बहादुर खां ने अपनी घोषणा में लिखा था, हिंदुस्तान के रहने वालो! आजादी का पाक दिन, जिसका अरसे से इंतजार था, अब आ पहुंचा है। मुसलमान! अगर तुम कुरान की इज्जत करते हो और हिंदुओ, अगर तुम गौ और गीता की इज्जत करते हो, तो अब छोटे-छोटे तफरकों को भूल जाओ और इस पाक जंग में शामिल हो जाओ। लड़ई के मैदान में कूदकर एक झंडे के नीचे लड़ और खून की नदियों से अंगरेजों का नाम हिंदुस्तान से धो डालो।
झांसी की रानी द्वारा प्रचारित घोषणा में भी इसी प्रकार लिखा गया, यदि आप सब और मैं एकमत हो जाएं, तो तनिक कष्ट तथा प्रयत्न से हम फिरंगियों का सर्वनाश कर सकते हैं। मैं हिंदुओं को गंगा, तुलसी तथा शलिग्राम की शपथ दिलाती हूं तथा मुसलमानों को अल्लाह और कुरान के नाम पर विनती करती हूं कि वे पारस्परिक भलाई के लिए फिरंगियों के विध्वंस में सहायता दें।
उक्त घोषणाओं की भाषा और तथ्य लगभग एक ही हैं। वस्तुत: इन्हें लिखने वाला व्यक्ति एक ही था तथा एक ही प्रेस में ये छापी भी गई थीं। यह बरेली स्थित बहादुरी प्रेस था और अपीलें उस प्रेस के मालिक और गवर्नमेंट कॉलेज, बरेली में अध्यापक मौलवी कुतुबशाह ने लिखी थीं। जिस भाषा का प्रयोग किया गया था, वह हिंदी और उर्दू, दोनों ही लिपियों में बोलचाल की सरल अवधी, ब्रज और प्रारंभिक खड़ बोली थी। अपीलों के अतिरिक्त तमाम ऐसे इश्तहार भी छापे गए, जिनमें हिंदू-मुसलिम एकता को प्रदर्शित करने वाले नारे विभिन्न ढंग से लिखे गए थे, जैसे दीन तु दुए, हिंदू का धर्म मुसलिम का ईमान, एक पिता के दुइ पुत्र, एक हिंदू एक तुर्क, इनका चोली दामन का साथ, हिंदू-मुसलमान एक, राम रहीम एक, श्रीकृष्ण एक आदि।
जाहिर है कि 1857 के महासंग्राम की जो चिंगारी 10 मई को मेरठ में सुलगी थी, वह शीघ्र ही देश के तमाम इलाकों में फैल गई थी। न केवल सिपाहियों, राजाओं और नवाबों ने, बल्कि विभिन्न शहरों, कसबों और गांवों की आम जनता ने इस महासंग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पर इस स्वाधीनता संग्राम का जो वैचारिक आधार था, उसमें रूहेलखंड के मौलवियों का विशेष रूप से योगदान रहा था। यह उन्हीं के नेतृत्व का परिणाम था कि हिंदू-मुसलिम एकता इस महासंग्राम में मजबूती से बनी। उन्हें काले पानी की सजा दी गई, फांसी पर लटकाया गया, मगर अपने विचार प्रकट करने में वे निर्भीक रहे। रूहेलखंड के मौलवी कुतुबशाह, मौलवी अहमुल्लाह शाह, मौलाना सिरफिराज अली, मुफ्ती इनायत अहमद, फकीर झंडा शाह और मौलवी मुहम्मद एहसान जैसी विभूतियों के विचारों ने विद्रोह को भड़काने में उसी प्रकार काम किया, जिस तरह फ्रांस की क्रांति के समय रूसो, मांटेस्क्यू और दिदरो की रचनाओं ने।
इन मौलवियों ने इमामियत के सवाल, जेहाद की आवश्यकता और मुजाहिदीन की भूमिकाओं को एक नया अर्थ दिया। काफिर शब्द का प्रयोग विदेशी अंगरेजों के लिए किया गया। इस जेहाद में हिंदू और मुसलिम, दोनों सम्मिलित थे। नाना साहब, झांसी की रानी आदि सभी विद्रोहियों को मुजाहिदीन कहा गया। दीन, धर्म, गाजी और जेहाद शब्दों से न कोई सामुदायिक पहचान बनती थी और न ही धार्मिक कट्टरता का बोध। एकता की जो अभिव्यक्ति इश्तहारों और घोषणाओं से प्रकट होती है, उससे लगता है कि हिंदू-मुसलिम भाईचारे का बंधन उस समय स्वाभाविक ढंग से था। अपने साझा इतिहास और विरासत का हिंदू और मुसलमान, दोनों को स्पष्ट रूप से बोध था। अंगरेज अधिकारियों ने एकता के इस बंधन को तोड़ने की बहुत साजिश की, किन्तु सफलता नहीं मिली। इस अभूतपूर्व हिंदू-मुसलिम एकता की प्रशंसा तब बरेली में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में कार्यरत बंगाली लिपिक दुर्गादास ने भी अपने आंखों देखे विवरण में की है, जबकि दुर्गादास अंगरेजों का पक्षधर और विद्रोहियों का घोर विरोधी था।
1857 के संग्राम में भारतीय हालांकि पराजित हुए, किंतु अंगरेजों ने समझ लिया कि आगे शासन चलाना आसान न होगा। अत: ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर महारानी विक्टोरिया के अधीन ब्रिटिश सरकार की सत्ता हिंदुस्तान में स्थापित की गई। आजादी की प्रथम लड़ई से उन्होंने जान लिया था कि जब तक हिंदू-मुसलिम एकता विद्यमान रहेगी, भारतीयों को दबाना कठिन होगा। इसीलिए उन्होंने पुरानी रोमन नीति ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई।
ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध 1857 की लड़ई साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ई थी। साम्राज्यवाद अभी खत्म नहीं हुआ है। कॉरपोरेट संसार का वर्चस्व इसका नया मुखौटा है। 1857 के संघर्ष को याद करते हुए संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए अपने भेदभाव भुलाकर एकजुट होकर इस नव-साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ होना जरूरी है। हिंदू-मुसलिम एकता के कारण आजादी के उस प्रथम संग्राम का ऐतिहासिक महत्व है।
हालांकि वह क्रांति विफल हो गई, पर आज ही के दिन मेरठ से सुलगी आजादी की चिनगारी देश के कोने-कोने में फैल गई थी