किसी भी युद्ध में हर कार्रवाई जायज नहीं। नियमों का उल्लंघन करने वाले युद्ध अपराधी माने जाते हैं।
श्रीलंका
सरकार के खिलाफ युद्ध अपराध संबंधी प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में पास हो
गया। इस प्रस्ताव में बताया गया है कि आतंकी संगठन लिट्टे के खात्मे के
दौरान सरकारी सेना ने आम तमिलों को भी जान-बूझकर नुकसान पहुंचाया। इसी तरह
कांगो के नेता थॉमस लुबंगा भी युद्ध अपराधी साबित हुए। उन्हें
अंतरराष्ट्रीय आपराधिक अदालत ने करीब दस वर्ष पहले हुई नस्लीय झड़प में 15
वर्ष से भी कम उम्र के बच्चों को बतौर सैनिक उतारने के कारण अपराधी माना।
हाल की इन दोनों घटनाओं से स्पष्ट है कि युद्ध में हर कार्रवाई मान्य नहीं
है।
ऐसे हुई शुरुआत
द्वितीय
विश्वयुद्ध से पहले यह आम धारणा थी कि युद्ध का चरित्र ही भयावह होता है,
पर विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी की नाजी सेना द्वारा हजारों यहूदियों की
हत्या और जापानियों द्वारा आम नागरिक और युद्ध बंदियों के साथ किए गए
दुर्व्यवहार ने अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों का ध्यान युद्ध अपराध की
तरफ खींचा। मांग तेज होने पर 1945 में नाजी सैनिकों के खिलाफ न्यूरेम्बर्ग
में मुकदमा शुरू हुआ, जिसमें 12 सैनिक कमांडरों को सेना से निकाला गया। इसी
तरह 1948 में टोक्यो में सुनवाई हुई, जिसमें सात जापानी कमांडरों को मौत
की सजा दी गई। ये दोनों घटनाएं आधुनिक युद्ध अपराध का आधार बनीं।
युद्ध अपराध का स्वरूप
किसी
भी युद्ध अथवा संघर्ष में अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानूनों और संधियों का
उल्लंघन ही युद्ध अपराध है। इसे विस्तार से चौथे जेनेवा कन्वेंशन के
अनुच्छेद 147 में परिभाषित किया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार, आम
नागरिकों की हत्या, उनके साथ अमानवीय व्यवहार, बंदी बनाए गए व्यक्ति के साथ
शत्रुतापूर्ण कार्रवाई, शरण में आए व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार, जान-माल
को नुकसान, अस्पताल आदि पर हमला, आम नागरिकों के ठिकानों पर शत्रुतापूर्ण
कार्रवाई आदि जैसे आचरण युद्ध अपराध माने जाएंगे। 2001 में हेग स्थित
न्यायालय ने एक और फैसला सुनाया कि युद्ध के दौरान महिलाओं के साथ किया
जानेवाला यौन दुर्व्यवहार भी युद्ध अपराध की श्रेणी में रखा जाए।
एक न्यायिक इकाई की जरूरत
अंतरराष्ट्रीय
मानवाधिकार समूहों की लंबी मांग के बावजूद अब तक कोई ऐसा वैश्विक मंच अथवा
इकाई नहीं बन सकी है, जो सिर्फ युद्ध अपराध के मामलों का ही निपटारा करे।
संयुक्त राष्ट्र व अन्य ट्रिब्यूनलों में ऐसे मामले निपटाए जाते रहे हैं।
हालांकि मांग यह भी की गई कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय को ही ऐसे मामलों का
निपटारा करने का जिम्मा सौंप दिया जाए, पर अमेरिका सहित कई देश इस प्रस्ताव
से सहमत नहीं हैं।