उस दिन दूध ढोने
वालों की हड़ताल थी, पर हाकिम सिंह फिर भी शहर आया था। उसे रुपयों की
जरूरत थी। छोटे भाई को खाद की बोरियां खरीदनी थीं। नर्मा (कपास) के लिए अब
खाद का समय था। होटल वालों का आज का इकरार था। कई होटल थे, खैर, दो होटलों
ने हिसाब से ज्यादा पैसे दे दिए थे और उसकी जरूरत पूरी हो गई थी।
उस
दिन उसकी साइकिल के कैरियर पर ढोल नहीं थे। पुरानी टूब इकट्ठी करके बंधी
हुई थी। ढोलों के बिना साइकिल सड़क पर ऐसे चल रही थी जैसे जौहड़ के पानी पर
कातर चलती हो। वह वैसे भी तो साइकिल पर हाथ फिरा कर रखता था, साइकिल नई की
नई रहती। क्या मजाल, कोई पुर्जा जरा भी आवाज करता हो। साइकिल चलाने में
जरा भी जोर नहीं लगता था।
गरमी के दिनों की
तेज धूप थी। पर अभी गर्म लू नहीं चलने लगी थी। दोपहर के बाद भट्टी की आग
जैसी धूप हो जाती। लोग बरसात की प्रतीक्षा करते, पर मानसून के आने की सूचना
अभी कहीं नहीं थी।
रेलवे फाटक के पास ही
नलके पर पानी पीने के लिए रुक गया। रजवाहा चलता होने से नलके का पानी ठंडा
था। मीठा भी था। दांतों को सर्द करता और जीभ पर स्वाद की डली रख देता।
मोटा-भारी नलका, पानी की धार ऐसे गिरती जैसे कोई चश्मा फट निकला हो। उसने
पेट भर कर पानी पी लिया और चल पड़। उसने अपनी एकआंख की चमक-सी मार कर देखा,
उसके पानी पीने के बाद एक लड़का और उसकी पत्नी नई साइकिल खड़ करके नलके का
पानी पीने लगे थे। साइकिल पर चढ़कर भी उसने अपनी गरदन घुमाई थी, लड़का
नलका चला रहा था और पत्नी ने अपने हाथ की अंजुली को मुंह से लगा लिया था।
हाकिम
सिंह अपने मजे में साइकिल चलाता जा रहा था, उसके पास से साइकिल तेजी के
साथ गुजर गई। उसने देखा, ये तो वही हैं जो फाटक पर पानी पी रहे थे। साइकिल
के हैंडल पर बुनतीदार तनी वाला थैला लटक रहा था। पत्नी, कैरियर पर बैठी थी।
उसने अपने एक हाथ से लड़के की कमर पकड़ रखी थी। वह हाकिम सिंह की ओर झांकी
भी थी, जैसे खुश हो। तेज दौड़ रही साइकिल का अहसास, पति की ताकत पर नाज और
दूसरी साइकिल को काट कर आगे चले जाने की जीत का जश्न।
गरमी
बहुत थी। पानी पीकर लगता जैसे नहीं पिया। पेट भरा-भरा, होंठ सूखे-सूखे।
चार-साढ़ चार मील जाकर कैंचियां (क्रॉसिंग) आई। अब वे कैंचियों पर पानी पी
रहे थे। पानी पीकर वे दम लेने लगे। हाकिम सिंह ने भी पानी पिया। उसकी एक
आंख की चमक दोनों को फिर देख गई। वह मन ही मन हंसा- ‘देखो साला टिड्डा-सा,
अपनी समझ में पहलवान बन बैठा है। टांगड़-सी मार कर कैसे आगे निकाल ले आया
साइकिल। अब चल बेटा, अब देखूंगा तुम्हें।’
हाकिम
सिंह की उम्र चालीस से ऊपर थी। उसके पास जमीन थोड़ थी। वह एक आंख से काना
था। उसका रिश्ता नहीं हुआ, लेकिन दूध ढोने की कमाई करके उसने छोटे भाई का
ब्याह करवा दिया। छोटा आज्ञाकारी था। मां चाहेअभी जिंदा थी, पर हाकिम छोटे
भाई के चूल्हे पर ही खाना खाता था। सबेरे-सबेरे दूध का चक्कर लगाता और फिर
शहर से आकर छोटे भाई के साथ खेती का काम करता। उन्होंने थोड़-बहुत जमीन भी
गिरवी पर ले रखी थी। हाकिम सिंह मजबूत काठी का था। काम को आगे लगा लेता।
ढोलों के बोझ समेत साइकिल उसके आगे तेज दौड़ती। और आज ढोल के बगैर साइकिल
उसे ऐसे लग रही थी जैसे साइकिल उसके पर हों और वह हवा के समान खुद-ब-खुद
आकाश में उड़ जा रहा हो।
कैंचियों से एक-आध
मील आगे जाकर लड़के ने अपनी साइकिल आगे निकालनी चाही। वह बहुत जोर लगा रहा
था, पर हाकिम सिंह के लिए यह साधारण बात थी। वह लड़के के साथ चलता गया। कभी
आगे निकल जाता, तो कभी पीछे रह जाता। जैसे वह लड़के का जोर आजमा रहा हो।
एक बार तो उसका दिल हुआ कि वह साइकिल को इतना तेज दौड़ए किलड़के से
मील-दो-मील आगे निकल जाए ताकि लड़के को साइकिल आगे निकालने की हिम्मत ही न
पड़। उसके मन के अंदर मजाक की लहर-सी उठती- ‘देखो, पीछे बैठी गिलहरी-सी ऐसे
समझती है जैसे दुनिया में उसका मर्द महाबली हो।’
फिर
हाकिम सिंह को अहसास होने लगा जैसे यह नई शादी वाला लड़का उसका अपना ही
छोटा भाई हो। उसके मन में एक रहम-सा पैदा होने लगा। अगर उसने लड़के से आगे
साइकिल निकाल दी तो उसकी पत्नी पर बुरा प्रभाव पड़गा। औरत की नजरों में वह
लड़का कमजोर आदमी होकर रह जाएगा। क्या कदर रह जाएगी पत्नी की निगाह में
अपने पति के मर्दानेपन की? हाकिम सिंह सोचने लगा, उसकी अपनी यह विजय उसके
किसी काम नहीं आएगी। लड़के का नाश हो जाएगा। लड़के की विजय तो फिर भी कोई
अर्थ रखती है। उसे लड़के पर तरस आने लगा।
कैंचियों
से वे दो मील आगे निकल आए थे। जब हाकिम सिंह लड़के से आगे निकलने की कोशिश
करता, औरत का चेहरा गंभीर हो जाता। उसकेलिए जैसे यह कोई अनहोनी बात हो रही
हो। हाकिम सिंह कभी उनके दाएं हाथ होता, तो कभी बाएं हाथ। लेकिन औरत का
मुंह हाकिम सिंह की ओर ही रहता। जब वह उनसे पीछे रह जाता, तो औरत के चेहरे
पर नूरानी आ जाती। उसकी आंखें हंस रही होतीं। वह कैरियर पर चौड़ होकर बैठी
दिखती।
‘लड़के का दम तो देखें, कहां तक है?’
हाकिम सिंह के मन में शरारत उठी। पर लड़के के माथे पर पसीने की बूंदे
देखकर उसने अंदाजा लगा लिया कि दम तो लड़के का निकला ही समझो। फिजूल में
पत्नी को खतान में ले गिरेगा।
रास्ते में
उन्हें दो बसें मिली थीं। एक आ रही थी और एक जा रही थी। ट्रक तो कई गुजरे
थे। इधर से भी उधर से भी। सड़क इतनी चौड़ नहीं थी। कई बार दोनों साइकिलें
कच्चे रास्ते पर चलने लगतीं। और फिर सामने अब साफ सड़क थी। पीछे से भी कुछ
नहीं आ रहा था। हाकिम सिंह ने साइकिल को लड़के के बराबर रख लिया। अपने माथे
पर से झूठ-मूठ का पसीना पोंछा। झूठ-मूठ ही अपना बायां हाथ अपनी कमर पर रख
लिया, जैसे बहुत थक गया हो। और फिर वह झुककर साइकिल चलाने लगा, जैसे सारा
जोर लगा रहा हो। उसने चोर आंख से देखा, औरत मुस्करा रही थी। लड़केका पूरा
जोर लगा हुआ था, जैसे वह मर मिटेगा लेकिन अपनी साइकिल को पीछे नहीं रहने
देगा। हाकिम सिंह धीरे-धीरे पीछे रह गया। फिर तो उसने साइकिल खड़ ही कर दी।
वे काफी दूर जा चुके थे, लेकिन हाकिम सिंह को औरत का खिला-खिला चेहरा साफ
दिख रहा था। हाकिम सिंह ने सिर झुका लिया, जब उसने देखा कि वह दूसरे हाथ से
लड़के की पीठ थपथपा रही थी